माँ का लाडला, उसका अपना कोख जाया
रात को जब ज्वर की मर्मात्मक पीडा से था छटपटाया
सरदर्द, बदनदर्द और थीं अनेको तकलीफे और दर्द
माँ तो यही समझती रही थी की यह सब कष्ट है उसको
रात भर यही समझती रही की उसको हुआ है ज्वर
पर ज्वर से तो लाडला था परेशा और हैरान
डाक्टर ने बताया की हुआ है उसको डेंगू जो करेगा परेशान
घूम गया था मस्तिक, रुक गई थी धड़कन और दिल परेशान
कियूं न हुआ था उसको डेंगू, कियूं किया लाडले को परेशान
काश मिल जाता वो मच्छर तो पूछती वो छटपटती माँ
तुझको ही कियूं मिला था मेरा वो लाडला , छोटा बच्चा
मै भी तो थी साथ कियूं मुझको तूने छोड़ दिया शैतान
असहनीय पीड़ा, दुःख, तकलीफ, कियूं दिया उस बालक को
अपने हिस्से का दुःख प्राणी को झेलना ही पड़ता है यकीनन
माँ को याद आया वो लम्हा जब पड़ी थी उसपर विपदा भारी
और छटपटाई थी उसकी भी माँ और यही कष्ट हुआ था तब उसको
अब समझ पाई थी बेटी आज उस तड़प, दर्द एहसास को
आज यही बताने को नहीं है उसकी माँ उसके पास
शायद यही दर्द, पीड़ा , अहसास चलता रहेगा हर माँ के साथ
और वो वयां ना कर सकेंगी अपना दुःख, लाडले के साथ ... .....
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
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