नजर को जाती है फ़ौरन ख़ुशी भी
जब कभी पंख लगाकर उड़ना चाह हमने
आसमा में ढेरो गिद्द-बाज मडराते नजर आये
फ़ौरन उड़ना भूल घोसले में बसेरा कर लिया
जब कभी चाहा पाकछिओं की तरह हमने चह-चाहना
गंदे- भद्दे अनर्गल भाषण सुने की बोलना भूल गए
जब कभी चाहा स्वच्छंद विचरण यहाँ और वहां
इतनी बंदिशे, इतनी यंत्रनाये मिली की चलना भूल गए
जब चाहा खुल कर हँसना, बोलना बतियाना
बंद कर दी गई, जुबान की शब्दों का अर्थ भूल गए....
आखिर लड़की को ही इतनी बंदिसे क्यूँ ?
क्यूँ आज भी समाज उनकी खुशियों पर अंकुश
लगता है चाहे बह महिला हो या पुरुष लेकिन
आज भी सबाल है स्त्री जीवन ?